गीता प्रेस, गोरखपुर >> महाभाव कल्लोलिनी महाभाव कल्लोलिनीहनुमानप्रसाद पोद्दार
|
10 पाठकों को प्रिय 201 पाठक हैं |
इस पुस्तक में राधाजन्म महोत्सव का वर्णन किया गया है।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
नम्र निवेदन
भगवती श्रीराधाजी का प्राकट्य-महोत्सव नयी वस्तु नहीं है। पिछले पाँच हजार
वर्ष पूर्व जबसे उनका धराधाम पर अवतार हुआ तभी से प्रतिवर्ष महोत्सव मनाया
जाता है शास्त्रों में यह स्पष्ट आज्ञा है। पुराणों में पद्मपुराण अत्यन्त
प्राचीन है। उसमें स्पष्ट शब्दों में प्रतिवर्ष महोत्सव मनाने का आदेश है
तथा उसका महान फल बताया गया है
प्रत्यब्दमेव कुरुते राधाजन्ममहोत्सवम्।
(पद्मपुराण, उत्तर., अ. 163)
‘प्रतिवर्ष राधाजन्म-महोत्सव करना चाहिये।’
अवश्य ही श्रीराधाजी लीला-सम्बन्ध लौकिक लीला से कम रहा और भगवान् की ह्लादिनी आनन्दरूपा निजशक्ति होने के कारण उनके आनन्द-विधान से भी विशेष सम्बन्ध रहा; अतः भगवान् श्रीकृष्णकी जैसे विभिन्न रुपों तथा भावों से सर्वत्र पूजा-उपासना हुई, उनका प्रकट्य-महोत्सव जैसे सर्वत्र मनाया जाने लगा, वैसा श्रीराधा जी का स्वाभाविक ही नहीं मनाया गया। परंतु भगवत्-प्रेम के उच्चतम साधन-राजमें तो श्रीराधा जी के दिव्य आदर्श को सामने रखने की परम अनिवार्य आवश्यकता है ही; विश्व-जगत् के मानव-प्राणी के लिए भी पारस्परिक प्रेम की वृद्धि के हेतु जिस जग में मानव-प्राणी के लिये भी पारस्परिक प्रेमकी वृद्धि के हेतु जिस त्याग की आवश्यकता है और जिसके बिना प्रेम एक केवल महोत्सवका पर्यावाची बना रहता है वह त्याग राधाजी के परम त्यागमय जीवन को भी आदर्श मानकर चलने से शीघ्र सिद्ध हो सकता है।
इसके लिये श्रीराधाजी के दिव्य प्रेम का, दिव्य भावों का उनके महान् त्याग का, उनकी दिव्य जीवन चर्या का और उनके स्वरूप-तत्त्वका स्मरण परम आवश्यक है, और इसी महान् उद्देश्य को लेकर प्राचीन परम्परागत राधा-जन्म महोत्सव को देशभर में व्यापक-रूप से मनाये जाने, उनकी महान् शिक्षाका प्रचार-प्रसार करके उसके द्वारा क्षुद्र ‘स्व’ की सेवा में लगे हुए पशुता तथा असुरता की ओर जाते हुए अधोगामी मनुष्य को ऊपर उठाकर उसको वास्तविक मानव बनाने तथा साधना के उच्च स्तर पर पहुँचाने के लिये यह आयोजन किया जा रहा है।
अवश्य ही श्रीराधाजी लीला-सम्बन्ध लौकिक लीला से कम रहा और भगवान् की ह्लादिनी आनन्दरूपा निजशक्ति होने के कारण उनके आनन्द-विधान से भी विशेष सम्बन्ध रहा; अतः भगवान् श्रीकृष्णकी जैसे विभिन्न रुपों तथा भावों से सर्वत्र पूजा-उपासना हुई, उनका प्रकट्य-महोत्सव जैसे सर्वत्र मनाया जाने लगा, वैसा श्रीराधा जी का स्वाभाविक ही नहीं मनाया गया। परंतु भगवत्-प्रेम के उच्चतम साधन-राजमें तो श्रीराधा जी के दिव्य आदर्श को सामने रखने की परम अनिवार्य आवश्यकता है ही; विश्व-जगत् के मानव-प्राणी के लिए भी पारस्परिक प्रेम की वृद्धि के हेतु जिस जग में मानव-प्राणी के लिये भी पारस्परिक प्रेमकी वृद्धि के हेतु जिस त्याग की आवश्यकता है और जिसके बिना प्रेम एक केवल महोत्सवका पर्यावाची बना रहता है वह त्याग राधाजी के परम त्यागमय जीवन को भी आदर्श मानकर चलने से शीघ्र सिद्ध हो सकता है।
इसके लिये श्रीराधाजी के दिव्य प्रेम का, दिव्य भावों का उनके महान् त्याग का, उनकी दिव्य जीवन चर्या का और उनके स्वरूप-तत्त्वका स्मरण परम आवश्यक है, और इसी महान् उद्देश्य को लेकर प्राचीन परम्परागत राधा-जन्म महोत्सव को देशभर में व्यापक-रूप से मनाये जाने, उनकी महान् शिक्षाका प्रचार-प्रसार करके उसके द्वारा क्षुद्र ‘स्व’ की सेवा में लगे हुए पशुता तथा असुरता की ओर जाते हुए अधोगामी मनुष्य को ऊपर उठाकर उसको वास्तविक मानव बनाने तथा साधना के उच्च स्तर पर पहुँचाने के लिये यह आयोजन किया जा रहा है।
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book